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दलित एक्ट

samagrothan
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दोपहरी का समय था। शोहरतगढ़ जिला कारागार में भोजन की घण्टी बजी ही थी कि लोग अपनी-अपनी तसलानुमा थाली लेकर लाइन में आगे खड़े होने के लिए दौड़ पड़े। बैरक नम्बर बारह मेें शानू अभी भी अपने मित्र अमित की प्रतीक्षा करता रहा। अचानक पैरों की आहट सुनकर वह भी जल्दी से दोनों की थाली लेकर दरवाजे की ओर लपका। उसका यकीन पक्का था, सामने वही पन्द्रह वर्षीय भोला-भाला अमित। उसके चेहरे पर अजीब सा तनाव था। शानू यह सोचकर चुप लगा गयी कि गांव से कोई मिलाई करने आया था, इसलिए हो सकता है कि घर की याद आ गई हो। दो मिनट बाद खामोशी शानू ने ही तोड़ी। अरे यार।़ बहुत जोर की भूख लगी है। मैंने तो सोचा कि तुम मिलाई ही करते रहोगे। अमित ने जैसे उसकी बात सुनी ही न हो।
शानू फिर बोला-अरे हां।़ कौन आया था मिलाई में? गांव घर का क्या हाल है? कोई मुझे तो नहीं पूछ रहा था?
अमित ने तीनों सवालों के जवाब मेेें सिर्फ इतना कहा-खेदू नहीं रहे।
चीख पड़ा था शानू- क्या कहा खेदू नहीं रहे? उसके हाथ से दोनों थालियां झन्न से नीचे गिर गई और वह पागलों की तरह अमित को झकझोरने लगा। किसने दी यह खबर? ऐसा हरगिज नहीं हो सकता है….उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। बड़बड़ाने लगा…….अभी तो कातिक में मैंने चारोंधाम की यात्रा कराने का वादा किया था।
इतने मेें लम्बी सीटी बजी। दोनों के सामने एक हïट्टा कट्टा, बड़ी मूछों वाला, खद्दर का सफेद कुर्ता पायजामा पहने एक आदमी खड़ा था। रोबीला चेहरा क्रोध से तमतमाकर और लाल सुर्ख हो रहा था। जेल मेें भला ठाकुर मणि बहादुर सिंह को कौन नहीं जानता। रमपुरा के चौहरे हत्याकाण्ड का एकमात्र अभियुक्त जो आजीवन कैद की सजा काट रहा था। जेल आने वाले हर कैदी को पहले मुखिया जी के नाम से चर्चित ठाकुर साहब के सामने पेश होना पड़ता था। जेल मेें किससे क्या काम लेना है, यह मुखिया जी ही तय करते थे। बड़ा से बड़ा अपराधी हो पर उसकी क्या मजाल कि मुखिया जी से आंख मिला दे। मुखिया जी को देख दोनों की हालत सेंध में पकड़े गये चोर जैसी हो गयी। अपना जीवन संगी बेत हवा में लहराते हुए गुरार्य- अबे अभी तुम लोगों के खाने का टेम नहीं हुआ है? स्..स्…स्याले बारात में आया है क्या? ऊपर से बर्तन ऐसे फेंकता है,जैसे बाप ने खरीद कर रखा हो। बाप का नाम सुनते ही अमित के मुह से चिख सी निकल गई तब तक झन्नाटेदार थप्पड़ गाल पर पड़ा और वह लडख़ड़ा कर गिर पड़ा। शानू ने ज्यो ही लपककर उसे संभालने का प्रयास किया तब तक पीठ पर बेंत के कई वार ने उसे भी धराशाही कर दिया। दोनों पड़े कराहते रहे और मुखिया जी भविष्य में ऐसा न करने पर चरसा उकेल लेने की हिदायत देते हुए आगे बढ़ गये।
बिना भोजन किये ही दोनों मित्र वापस बैरक में आ गये। इस पीडा पर खबर की पीडा फिर भारी पडऩे लगी और बचपन से लेकर जेल आने से पूर्व तक की खेदू से जुड़ी न जाने कितनी यादें शानू के जेहन में घूमने लगी।
आखिर खेदू से ऐसा कौन सा रिश्ता रहा जो उनका विछोह मन को इतना और व्यतीत कर रहा है। जब से होश संभाला था तो परिवार में दादा-दादी, मां-बाप, भाई-बहन व चाचा-चाची के साथ ही एक और सदस्य हलवाहा बाबा से भी परिचय हुआ था। परिवार के अन्य सदस्यों से किसी भी रुप से कम नहीं रहा हलवाहा बाबा से मिलने वाला स्नेह। जब भी खेत से उनके आने का समय होता तो अपने अन्य भाईयों के साथ शानू भी टकटकी लगाये प्रतिक्षा करता रहता है। बच्चे हल रख कर बैलों को चरही पर बांधना दूभर कर देते कोऊ कंधे पर चढ़ा जा रहा है तो हाथ पकड़कर खींच रहा है। वे माटी से सने अपने शरीर से बच्चों को दूर रखने की लाख कोशिश करते पर भला मानता कौन था। प्यास का बहाना बताकर जब बच्चों से पानी लाने के लिए कहते तो ये होड़ लग जाती कि कौन पहले लाकर देता है। कई बार तो ऐसा भी होता कि बड़ा भाई रानू पहले ला कर पानी दे देता तो शानू रोने चिल्लाने लगता। तब हलवाहा बाबा बढ़े ही प्रेम से उसे समझाते कि अभी हाथ मुंह ही धोया है लाओ मैं अपने भईया का ही लाया पानी पियूंगा। शानू इतना खुश हो जाता जैसे कोई बहुत बड़ी प्रतियोगिता जीत ली हो। हलवाहा बाबा भी बच्चों के लिए कभी ककड़ी तो कभी खीरा कभी गन्ना तो कभी भुïट्टा शकरकंद लाना नही भूलते थे। आम के मौसम में तो वे न जाने कहा से पहली सीपी लाकर बच्चों को खिलाते। हलवाहा बाबा कि बीड़ी माचिस लाने की खुब होड़ रहती क्योंकि उसके साथ कम्पट(लेबन चूस) ईनाम मेें मिल जाते थे।उनका काम करने में बड़े गर्व व गौरव की अनुभूति तो होती थी साथ मेेें सन्तुष्टि भी मिलती थी।
एक दिन किसी ने आ कर खबर दी कि खेदू आज पूरा खेत जोत कर देर से आयेंगे, यह सूचना शानू ज्यों की त्यों जाकर घर में दे दी फिर क्या था हलवाहा बाबा का नाम लेने कि बेअदबी के जुर्म में उसे मां के हाथ के दो तीन थप्पड़ खाने पड़े। तभी शायद उसे पहली बार पता चला था कि हलवाहा बाबा का नाम ही खेमू है। शर्म के मारे कई दिनों तक वह हलवाहा बाबा के सामने तक पडऩे से कतराता रहा। बाजार हो या मेला हलवाहा बाबा के साथ जाने के लालच में कई दिन पहले से बच्चे खुशामद मेेें जुट जाते। बैलगाड़ी की सैर का भी सुअवसर कभी कभार हलवाहा बाबा के साथ मिल जाता पर वे पहले ही हिदायत दे देते खबरदार जिसको जहा बैठाया जा रहा है वहा से खिसकेगा नही फिर भी बच्चे कई बार आंख बचा कर किसी बैल को खोद देते है और जब बैल उचक जाते तो कड़ी फटकार भी मिलती। कभी कभी तो कान भी उमेठ दिये जाते। यह दण्ड उस सफलता के आगे बहुत छोटा प्रतीत होता।
उम्र बढऩेेके साथ ही शानू हलवाहा बाबा के साथ खेत खलिहान भी जाने लगा। बाबा की पीठ पर सवार होकर दांवर हांकने से लेकर हाट-बाजार घूमने तक का दृश्य उसकी आंखों में नाच रहा था।
घर में किसी की क्या मजाल कि हलवाहा बाबा के सामने डांट-झपट भी दे। वे तुरन्त बीच मे आ जाते (लरिका हैं सयान हुइहैं तौ खुदै समझदार ह्वै जइहैं। उनके ये शब्द रक्षा कवच बन जाते हैं.
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खेदू वाकई पासी जाति के थे जो अपने पिता से विरासत के रुप में मिली। हलवाही गांव के सग्रांम सिंह के यहा करते थे। शानू संग्राम सिंह का ही बड़ा बेटा था। दो भाईयों में बड़े खेदू आजीवन आविवाहित रहे। उनके घर में गृहस्थी के नाम पर मात्र एक चटाई,कम्बल, बाल्टी, लोटा व दो चार कपड़े थे। वे कभी कभार ही अपने घर जाते थे। छोटे भाई पचई का भरापूर परिवार था। परदेश कमाकर उसने खेत वगैरह भी ले लिया था। गांव में एक छोटी सी दुकान भी थी। उसके दोनों लड़के गांव के मिडिल स्कूल में भी पढऩे जाते थे। लेकिन खेदू बड़े गर्व से कहते थे कि हमें उनकी एक सुई भी हराम है। आखिर मेरे कमी किस बात की है जो उसके(छोटे भाई) के आगे हाथ फैलाऊं। हां बड़ी भातीजी की शादी में उन्होने राशन व पूरे पांच हजार रुपये ले जाकर पचई के हाथ उस गाढे वक्त रखा था जब गांव के महाजन से लेकर उसके संगी साथियों ने भी हाथ खड़े कर दिये थे।
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समय बीतता गया। शानू भी मिडिल के बाद पढाई करने शहर पहुंच गया। हफ्ते पन्द्रह दिन में जब भी घर आता तो निजी खर्चों में कटौती करके खेदू बाबा के लिए खैनी-बीड़ी व उनकी पसंदीदा गुजराती नमकीन लाना नहीं भूलता था। कभी-कभी तो बम्बईया धोती और साटन की कमीज भी लाकर देता। सामान पाकर वे चहक उठते, फिर मायूस होकर कहते, (भैया अपनी खानगी मा कटौती न किहौ। पढ़ाई-लिखाई मा बड़ी मेहनत लागत है। जब कमाय लागेय तब ई सब लायेव।) एम.काम.की डिग्री हासिल करने के बाद शानू को एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी भी मिल गई। यह खबर जब गांव पहुंची तो मारे खुशी के खेदू ने सभी देवथानों पर जाकर मत्था टेका। इत्फाक से पूरे एक साल के लिए शानू को नौकरी में बाहर जाना पड़ा। वह जब लौटा तो घर पर जमा घर- परिवार वालों, पास- पड़ोसियों व करीबी मेहमानों के बीच जब हलवाहा बाबा को नहीं देखा तो बेचैन सा हो उठा। स्वागत सत्कार व शुभकामना के प्रसंगों को नजरदांज करते हुए उसने सवाल दाग दिया( हलवाहा बाबा) कहां है? जवाब मिला आते होंगे। लेकिन शानू के मुंह से फिर वही सवाल निकला तो किसी ने बताया कि कुछ तबियत खराब है, इसलिए अपने यहां चले गये है। शानू पूरी भीड़ को चीरते हुए सरपट खेदू के घर की ओर भागा। पीछे- पीछे पूरी भीड़ भी चल पड़ी। वहां पहुंचते ही एक टूटी खाट पर पड़ी खेदू का जर्जर काया देखकर वह अपने आपको रोक नहीं सका और बच्चे की तरह लिपट गया। जाने कहां से खेदू में भी गजब की स्फूर्ति आ गई। दोनों एक दूसरे से लिपटकर काफी देर तक रोते रहे। अगले दिन शानू एक जीप बुलाकर खुद खेदू को शहर के सबके प्रतिष्ठित चिकित्सक ड़ॉ बर्मन के यहा ले गया। वहा पर इन्जेक्शन लगाकर डॉ ने कुछ दवायें दी। उसी दिन से खेदू के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होने लगा।
शानू की छुïट्टी पूरी होने को थी। वह शहर से खरीदारी करके घर आ रहा था कि रास्ते में पचई का बड़ा लड़का खेमकरन उसे पान की दुकान पर सिगरेट पीते हुए दिखाई पड़ गया। शानू ठहरा और साधिकार उसको कड़ी फटकार लगाई। अपने साथियों के बीच अपमानित सा महसूस करने के बाद खेमकरन ने भी पलटवार जवाब दे दिया। बस पास खड़े अमित ने यह कहते हुए उसे दो तमाचा रसीद कर दिया कि एक तो सिगरेट पीते हो और जबान लड़ाते हो, तेरी ये हिम्मत।़ खुद शानू ने सिगरेट न पीने की नसीहत देकर मामला रफादफा कराया।
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शानू घर पहुंचा तो समान भरा एक थैला खेदू को पकड़ाते हुए बोला- कि बाबा ये आपके जरुरत की चीजें है बांट मत दीजिएगा। खेदू ने तुरन्त हसते हुए थैला खोल डाला। कम्बल, कमीज, धोती, कई पैकेट तम्बाकू, मेवे, टॉर्च के सेल…….. आदि। ((इ सब खरीद लिहेव अब तोहरे लगे काव बचा होये। परदेश मा के केहका चीन्हत है।)) शानू ने विश्वास दिलाया कि नही उसके पास खर्च को पर्याप्त पैसे है। यह सब चल ही रहा था कि धूल उड़ाते हुए पुलिस की जीप आकर शानू के घर के सामने रुकी और उसमें तेजतर्रार दरोगा शमशेर बहादुर उतरा। जीप पर पीछे खेमकरन भी बैठा था।
घर के सामने उतरते ही खेम ने शानू की ओर इशारा कर दिया ((साहब यही है। ))
दरोगा ने गरजते हुए पूछा-तुम्हारा ही नाम शानू है।
शानू ने विनम्र स्वर में जवाब दिया ((हां बताइये क्या बात है?))
दरोगा ने दांत पीसते हुए कहा- स्याले, गुण्डागर्दी करता है और पूछता है क्या बात है। उसने साथ में आये तीनों सिपाहियों को आदेश दिया कि बैठा लो इसे जीप पर। बाकी चलकर थाने मेेेंही बात करेंगे।
शानू भी थोड़ा तेज आवाज में बोला-((तानाशाही थोड़े ही है दरोगा सहाब, आपके साथ मैं तभी चलूंगा जब आप जुर्म बतायेंगे। )) ये वार्तालाप चल ही रहा था कि समाचार जंगल की आग की तरह पूरे गांव में पहुंच गया। बड़ी संख्या मेें लोग शानू के घर के सामने जुट गए। दरोगा जबर्दस्ती घसीटते हुए शानू को जीप मेें बैठाने का प्रयत्न करने लगा। शमशेर के खौफ का आलम यह था कि पूरी भीड़ मेें किसी के बोलने की हिम्मत नहीं हुई। भीड़ को चीरते हुए एक वृद्ध काया आगे बढ़ी और दरोगा का गिरेबान पकड़कर झकझोर दिया।
((कौन सा कसूर है मेरे लाल ने?)) चलो हमेें फांसी दे दो। खबरदार अगर बच्चे को हाथ भी लगाया तो…..। खेदू का यह रुप देख कर पूरी भीड़ ठगी सी खड़ी रह गई। शायद अग्रिम कार्रवाई की कल्पना से लोग धीरे-धीरे खिसकने लगे। दरोगा भी एक क्षण के लिए सकपका गया।
फिर वह अपने आपको संभालते हुए बोला- ((इसके खिलाफ दलित एक्ट का मुकदमा है। इसने अपने साथी अमित के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के खेमकरन पुत्र पचई को लात-घूसों से मारापीटा। जान से मारने की धमकी दी और जातिसूचक शब्दों से गालियां दी।)) सुना जुर्म… अब चूपचाप बैठाऔ इसे जीप पर…।
अपने भतीजे खेमकरन का नाम सुनते ही खेदू बिलबिला पड़ा। ((नहीं ऐसा कतई नहीं हो सकता, आखिर वह भी तो हमारे घर का ही लड़का है।)) दरोगा ने खेम की ओर इशारा करते हुये कहा, तुम ही बता दो, असलियत, तसल्ली हो जाये।
सबकी निगाहें खेम की ओर उठ गई, और उसने सहमती से सिर हिला दिया। तब तक दो पुलिस ïवाले अमित को भी उसके घर से पकड़ ले आये। अमित गांव वालों के सामने पूरी घटना बताने का प्रयत्न करने लगा तब तक एक पुलिस वाले ने दो-तीन थप्पड़ रसीद कर दिये।
खेदू फिर भी हार मानने क ो तैयार नही था। किसी गलती पर मार भी दिया होगा तो क्या हुआ ? यह हमारे घर का मामला है, तुम लोगो सेे क्या मतलब। हमारी तो सब जरूरतें यहां से पूरी होती है। कितनी बार यही से पैसा ले जाकर खेम की पढ़ाई-दवाई के लिये मैंने अपने हाथ से दिया है, अगर डांट-ड़पट ही दिया तो कौन बुरा किया।
लेकिन उसकी बात सुनता कौन ? दरोगा फिर शानू को घसीटने लगा। प्रतिरोध करने पर उसने इतने जोर का धक्का मारा कि खेदू की वृद्ध काया दूर जा गिरी। वह बड़बड़ाता रहा कि न हुए जवानी के दिन,नही तो तुम सब (पुलिस वालों) को अकेले रस्सी में बांध देता। देखते ही देखते दोनों लड़को को लेकर पुलिस की जीप बड़ चली। खेदू असहाय की भांति तड़पता और पागलों की तरह बड़बड़ाता रहा। उसी दिन से खेदू फिर बीमार हो गया। और चारपाई पकड़ ली। तमाम दवा इलाज के बाद भी उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नही हुआ। बस यही कहता कि अब तो मर जाना ही ठीक है कम से कम अपनी आंख से यह दिन न देखना पड़ता। हां, मेरे मरने के बाद शानू ही आग देगा। आखिरकार, अठवें दिन खेदू ने शानू-शानू कहते-कहते दम तोड़ दिया।
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जेल में खेदू के गुजर जाने की सूचना शानू के लिए असहज थी। अचानक वह गजब की फुर्ति के साथ उठा और अमित से बोला चलो हम लोगों को अभी घर चलना हैं।
अमित आश्चर्य से उसके ओर देखने लगा, लेकिन कैसे?
शानू बोला जेल की पिछली दीवार में प्लास्टर हो रहा है। तमाम कैदी नहा करके अपनी धोती वही फैला कर आये है। चलो उन्ही धोतियों को जोड़ लेंगे और भिगो करके दीवार पर फेंक देंगे। फिर उसी धोती के सहारे दीवार पर चढ़कर उस पर कूद जायेंगे। दोनों अपने मिशन की ओर चल पड़े। बड़ी ही चतुराई से आंख बचाकर दोनों जेल की दीवार फांद कर उस पार पहुंचे। और सरपट रेलवे स्टेशन से गाड़ी पकड़ चल पड़े। बमुश्किल एक घण्टे में गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी। दोनों वहां से पैदल घर की ओर चल पड़े। घर पहुंचते ही गांव वालों का खासा जमघट था। सब लोग अन्तिम संस्कार करवाने की जल्दी में थे, लेकिन पचई फफक-फफककर रोते हुए यही कह रहा था कि जाओ तुम लोग मेरे शानू भईया को ले आओ। जिससे हम भईया (खेदू) की अन्तिम इच्छा तो पूरी कर सकें। अचानक शानू और अमित जैसे पहुंचे लोग आश्चर्य चकित हो उठे। पचई शानू को गले लगा कर बड़ी देर तर रोता रहा। वह बार-बार सफाई दे रहा था कि मार पीट की घटना की असलियत उसे बाद में पता चली। और खेम पूराने सरपंच के बहकावे आकर पुलिस के पास पहुच गया।
खैर…. जल्दी …जल्दी अंतिम संस्कार की तैयारी हुई और शानू ने खेदू को मुखाग्नि देकर रीति रिवाज के साथ अंतिम संस्कार किया। घर आकर ब्राह्मïणों को भोजन कराया। इधर, अगले दिन सुबह ही दरोगा शमशेर बहादुर नींद मेें ही था कि अचानक सेट चीख पड़ा-शानू और अमित नाम के लड़के कल जेल से फरार हो गए। तुरन्त गिरफ्तार करिए। वह चौंककर उठ बैठा। वर्दी चढ़ाई और ज्यों ही बाहर निकला तो वहां शानू और अमित दोनों हाथ जोड़कर खड़े दिखाई पड़े।
शानू बोला-((सर।़ हम दोनों ही हैं दलित एक्ट के मुल्जिम जो जेल से फरार हैं।)) इतना कहकर गुनहगार की भांति उसने अपना सिर झुका दिया। पीछे आयी ग्रामीणों की भीड़ से निकलकर पचई ने दरोगा को पूरी घटना की असलियत बताई। पर अब वह बेचारा क्या करता।
दरोगा ने कहा, मेरीे सहानुभूति हैै, लेकिन कानून कानून है। दलित एक्ट के मुल्जिम को मैं कैसे छोड़ सकता हूं। दरोगा ने दोनों को फिर हवालात में ड़ाल कर वायरलेस सेट से पुन: गिरफ्तारी की सुचना दी। और पूरी भीड़ को असहाय सी वापस लौट पड़ी। (लेखक स्वास्थ्य मंत्रालय भारत सरकार की राजभाषा सलाहकार समिति के सदस्य रहे हैं)

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